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5 months ago
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पौष माह की संक्रांति के साथ सिख समाज की ओर से शहीदों को याद किया जाता है। इन दिनों दशम पिता श्री गुरु गोविंद सिंह महाराज का परिवार जहां बिछड़ता है, वहीं चारों साहिबजादे शहीद हो जाते हैं। इन दिनों में सिख समाज के लोग खुशी का कोई काम नहीं करते।
दशमपिता के शहीद साहबजादों और माता गुजरी को नमन किया जाता है। परिवार बिछोड़ा साहिब से लेकर फतेहगढ़ साहिब तक अनेक कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं। जिस-जिस स्थान से होकर परिवार गुजरा-बिछड़ा या शहीद हुआ है।
बड़े साहिबजादे अजीत सिंह व जुझार सिंह चमकौर साहिब की लड़ाई में शहीद हुए तो छोटे साहिबजादे 7 साल के फतेह सिंह और 9 साल के जोरावर सिंह को सुबा सरहिंद ने माता गुजरी के साथ ठंडे बुर्ज पर आज से 313 साल पहले 1705 में 3 दिन और 2 रातें रखा था। उसके बाद साहिबजादों को दीवारों में चुनवा कर शहीद कर दिया गया था।
इसी शहादत को नमन करने के लिए 25 से 27 दिसंबर तक शहीदी जोड़ मेले का आयोजन किया जा रहा है। इस नगर में उन्हें गंगू नामक ब्राह्मण मिला, जो बीस वर्षों तक गुरूगोविंद सिंह के पास रसोईये का काम करता था। उसकी जब माता गुजरीदेवी से भेंट हुई तो उसने उन्हें अपने घर ले जाने का आग्रह किया। पुराना सेवक होने के नाते माता जी दोनों नन्हें बालकों के साथ गंगू ब्राह्मण के घर चलने को तैयार हो गयी।
माता गुजरीदेवी के सामान में कुछ सोने की मुहरें थी जिसे देखकर गंगू लोभवश अपना ईमान बेच बैठा। उसने रात्रि को मुहरें चुरा लीं परन्तु लालच बड़ी बुरी बला होती है। वासना का पेट कभी नहीं भरता अपितु वह तो बढ़ती ही रहती है। गंगू ब्राह्मण की वासना और अधिक भड़क उठी। वह ईनाम पाने के लालच में मुरिंज थाना पहुँचा और वहाँ के कोतवाल को बता दिया कि गुरूगोविंद सिंह के दो पुत्र एवं माता उसके घर में छिपी हैं।
कोतवाल ने गंगू के साथ सिपाहियों को भेजा तथा दोनों बालकों सहित माता गुजरीदेवी को बंदी बना लिया। एक रात उन्हें मुरिंडा की जेल में रखकर दूसरे दिन सरहिंद के नवाब के पास ले जाया गया। इस बीच माता गुजरीदेवी दोनों बालकों को उनके दादा गुरू तेग बहादुर एवं पिता गुरुगोविंदसिंह की वीरतापूर्ण कथाएँ सुनाती रहीं।
सरहिंद पहुँचने पर उन्हें किले के एक हवादार बुर्ज में भूखा प्यासा रखा गया । माता गुजरीदेवी उन्हें रात भर वीरता एवं अपने धर्म में अडिग रहने के लिए प्रेरित करती रहीं। वे जानती थीं कि मुगल सर्वप्रथम बच्चों से धर्मपरिवर्तन करने के लिए कहेंगे। दोनों बालकों ने अपनी दादी को भरोसा दिलाया कि वे अपने पिता एवं कुल की शान पर दाग नहीं लगने देंगे तथा अपने धर्म में अडिग रहेंगे।
सुबह सैनिक बच्चों को लेने पहुँच गये। दोनों बालकों ने दादी के चरणस्पर्श किये एवं सफलता का आशीर्वाद लेकर चले गए। दोनों बालक नवाब वजीरखान के सामने पहुँचे तथा सिंह की तरह गर्जना करते बोलेः “वाहे गुरु जी का खालसा, वाहे गुरू जी की फतेह।”
चारों ओर से शत्रुओं से घिरे होने पर भी इन नन्हें शेरों की निर्भीकता को देखकर सभी दरबारी दाँतो तले उँगली दबाने लगे। शरीर पर केसरी वस्त्र एवं पगड़ी तथा कृपाण धारण किए इन नन्हें योद्धाओं को देखकर एक बार तो नवाब का भी हृदय भी पिघल गया।
उसने बच्चों से कहा : “इन्शाह अल्लाह! तुम बड़े सुन्दर दिखाई दे रहे हो। तुम्हें सजा देने की इच्छा नहीं होती। बच्चों ! हम तु्म्हें नवाबों के बच्चों की तरह रखना चाहते हैं। एक छोटी सी शर्त है कि तुम अपना धर्म छोड़कर मुसलमान बन जाओ।” नवाब ने लालच एवं प्रलोभन देकर अपना पहला पाँसा फैंका।
वह समझता था कि इन बच्चों को मनाना ज़्यादा कठिन नहीं है परन्तु वह यह भूल बैठा था कि भले ही वे बालक हैं परन्तु कोई साधारण नहीं अपितु गुरू गोविंदसिंह के सपूत हैं। वह भूल बैठा था कि इनकी रगों में उस वीर महापुरूष का रक्त दौड़ रहा है जिसने अपना समस्त जीवन धर्म की रक्षा में लगा दिया था।
नवाब की बात सुनकर दोनों भाई निर्भीकतापूर्वक बोले : “हमें अपना धर्म प्राणों से भी प्यारा है। जिस धर्म के लिए हमारे पूर्वजों ने अपने प्राणों की बलि दे दी उसे हम तुम्हारी लालचभरी बातों में आकर छोड़ दें, यह कभी नहीं हो सकता ।”
नवाब की पहली चाल बेकार गयी। बच्चे नवाब की मीठी बातों एवं लालच में नहीं फँसे। अब उसने दूसरी चाल खेली। नवाब ने सोचा ये दोनों बच्चे ही तो हैं, इन्हें डराया धमकाया जाय तो अपना काम बन सकता है। उसने बच्चों से कहा : “तुमने हमारे दरबार का अपमान किया है। हम चाहें तो तुम्हें कड़ी सजा दे सकते हैं परन्तु तु्म्हे एक अवसर फिर से देते हैं। अभी भी समय है यदि ज़िंदगी चाहते हो तो मुसलमान बन जाओ वर्ना….”
नवाब अपनी बात पूरी करे इससे पहले ही ये नन्हें वीर गरज कर बोल उठे : “नवाब ! हम उन गुरूतेगबहादुरजी के पोते हैं जो धर्म की रक्षा के लिए कुर्बान हो गये। हम उन गुरूगोविंदसिंह जी के पुत्र हैं जिनका नारा है : चिड़ियों से मैं बाज लड़ाऊँ, सवा लाख से एक लड़ाऊँ।
जिनका एक-एक सिपाही तेरे सवा लाख गुलामों को धूल चटा देता है, जिनका नाम सुनते ही तेरी सल्तनत थर-थर काँपने लगती है। तू हमें मृत्यु का भय दिखाता है। हम फिर से कहते हैं कि हमारा धर्म हमें प्राणों से भी प्यारा है। हम प्राण त्याग सकते हैं परन्तु अपना धर्म नहीं त्याग सकते।”
इतने में दीवान सुच्चानंद ने बालकों से पूछा : “अच्छा! यदि हम तुम्हे छोड़ दें तो तुम क्या करोगे ?” बालक जोरावर सिंह ने कहा : “हम सेना इकट्ठी करेंगे और अत्याचारी मुगलों को इस देश से खदेड़ने के लिए युद्ध करेंगे।” दीवान : “यदि तुम हार गये तो ?” जोरावर सिंह : (दृढ़तापूर्वक) “हार शब्द हमारे जीवन में नहीं है। हम हारेंगे नहीं या तो विजयी होंगे या शहीद होंगे।”
बालकों की वीरतापूर्ण बातें सुनकर नवाब आग बबूला हो उठा। उसने काजी से कहा : “इन बच्चों ने हमारे दरबार का अपमान किया है तथा भविष्य में मुगल शासन के विरूद्ध विद्रोह की घोषणा की है। अतः इनके लिए क्या दण्ड निश्चित किया जाये ?”
काजी : “ये बालक मुगल शासन के दुश्मन हैं और इस्लाम को स्वीकार करने को भी तैयार नहीं हैं। अतः, इन्हें जिन्दा दीवार में चुनवा दिया जाये।”
शैतान नवाब तथा काजी के क्रूर फैसले के बाद दोनों बालकों को उनकी दादी के पास भेज दिया गया। बालकों ने उत्साहपूर्वक दादी को पूरी घटना सुनाई। बालकों की वीरता को देखकर दादी गदगद हो उठी और उन्हें हृदय से लगाकर बोली : “मेरे बच्चों! तुमने अपने पिता की लाज रख ली।”
दूसरे दिन दोनों वीर बालकों को दिल्ली के सरकारी जल्लाद शिशाल बेग और विशाल बेग को सुपुर्द कर दिया गया। बालकों को निश्चित स्थान पर ले जाकर उनके चारों ओर दीवार बननी प्रारम्भ हो गयी। धीरे-धीरे दीवार उनके कानों तक ऊँची उठ गयी। इतने में बड़े भाई जोरावरसिंह ने अंतिम बार अपने छोटे भाई फतेहसिंह की ओर देखा और उसकी आँखों से आँसू छलक उठे।
जोरावर सिंह की इस अवस्था को देखकर वहाँ खड़ा काजी बड़ा प्रसन्न हुआ। उसने समझा कि ये बच्चे मृत्यु को सामने देखकर डर गये हैं। उसने अच्छा मौका देखकर जोरावरसिंह से कहा : “बच्चों ! अभी भी समय है। यदि तुम मुसलमान बन जाओ तो तुम्हारी सजा माफ कर दी जाएगी।”
जोरावर सिंह ने गरजकर कहा : “मूर्ख काजी ! मैं मौत से नहीं डर रहा हूँ। मेरा भाई मेरे बाद इस संसार में आया परन्तु मुझसे पहले धर्म के लिए शहीद हो रहा है। मुझे बड़ा भाई होने पर भी यह सौभाग्य नहीं मिला, इसलिए मुझे रोना आता है।”
सात वर्ष के इस नन्हें से बालक के मुख से ऐसी बात सुनकर सभी दंग रह गये। थोड़ी देर में दीवार पूरी हुई और वे दोनों नन्हें धर्मवीर उसमें समा गये। कुछ समय पश्चात दीवार को गिरा दिया गया। दोनों बालक बेहोश पड़े थे, परन्तु अत्याचारियों ने उसी स्थिति में उनकी हत्या कर दी।
जैसे चमकौर की लड़ाई में गुरु गोबिंद ने दोनों बड़े बेटों को खुद सजाकर युद्ध में शहीद होने के लिए भेजा था ठीक वैसे ही सिरहिंद में दादी गुजरी देवी ने दोनों पोतों को सजाकर मृत्युदंड के लिए भेजा। 26 दिसंबर 1705 को तय वक्त पर दोनों मासूमों को लाया गया।जल्लादों ने दीवार चुन्नी शुरू की, दोनों बच्चे जोरावर सिंह और फतेह सिंह गुरुबानी का पाठ करने लगे।
बिना डरे आंखों से आंखें मिला कर मासूमों को आखिर तक माफी मांगने को बोला गया लेकिन उन्होंने मृत्यु को चुना। कुछ देर में उनको दीवार में चुन दिया गया। उधर बुर्ज में कैद गुरु गोविंद सिंह की मां और बच्चों की दादी माता गुजरी देवी ने भी तुरंत प्राण त्याग दिए।
इस तरफ एक हफ्ते में गुरु गोबिंद सिंह का पूरा परिवार देश और धर्म की रक्षा के लिए शहीद हो गया। 4 बेटे और मां नहीं रहे। इस क्रूरता का पता जब गुरु गोबिंद को चला तो उन्होंने प्रसिद्ध जफरनामा (औरंगजेब को लिखा पत्र) बादशाह को भेजा। क्रूरता का अंजाम बुरा ही होता है।
5 साल बाद साल 1710 में गुरु गोबिंद सिंह के चेले बहादुर बंदा सिंह ने ना सिर्फ वजीर खान (Wazir Khan) को हरा पंजाब में सिख राज कायम किया बल्कि मासूमों के कातिल वजीर खान को मौत के घाट उतार क्रूरता की सजी दी। आज देश गुरु गोबिंद, उनके परिवार और उनके सैनिकों की कुर्बानी भूल चुका है, इसे याद रखिए।
26 दिसंबर को “वीर बाल दिवस” के रूप में मनाया जाता है।
यह बाबा फतेह सिंह और जोरावर सिंह के बलिदान का दिन है।
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