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2 months ago
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बुद्ध ने अपनी दार्शनिक विचार-धारा को समझाते हुए सत्य के दो रूप बतलाये हैं। एक सत्य वह है, जो गहराई में जाने पर चाहे ठीक न उतरता हो, पर व्यवहार के लिये वह पर्याप्त है इसे व्यवहार सत्य या संवृति-सत्य कहते हैं। पत्थर, लोहा, काष्ठ को जिस रूप में हम देखते हैं, और उनसे उपयोग लेते हैं, यह संवृति सत्य हैं। पर, परमार्थ सत्य की दृष्टि से देखने पर यह मानना पड़ेगा, कि यह सब नेत्रों से न दिखाई देने वाले परमाणुओं से मिल कर बनी हैं परमाणु भी ठोस चीज़ नहीं है, वह भी विद्युत्कण, नाभिकण के योग हैं।
विद्यु तकण ऐसी वस्तु है, कि जो एक स्थान पर क्षण भर के लिये भी नहीं टिकती। वैज्ञानिक उसे कण और तरंग दोनों कहते हैं। ऐसे भंगर कण हैं, जो अपनी ऐसी परम्परा या धारा छोडते हैं, जिसको तरंग कहेंगे। यही बात नाभिकण के भीतर के पॉज़िट्रान, न्यूट्रान, मेसोट्रोन के बारे में भी है। अर्थात् विश्व की आधारिक टे परमा- गुयों से भी सूक्ष्म, अतीन्द्रिय, भंगुर, प्रवाह की तरह चलायमान हैं। इसे परमार्थ सत्य मानने पर फिर पत्थर, लोहा, काष्ठ के जिस रूप को हम सत्य माने हुये हैं, यह सत्य नहीं ठहरता।
इस प्रकार आधुनिक विचार-शैली में भी हमें व्यवहार-सत्य और परमार्थ सत्य का भेद रखना पड़ता है इसी भेद को बुद्ध ने समझाया। आचार्य शान्ति देव ने कहा है। जैसा कि ऊपर बतलाया, प्रतीत्यसमुत्पाद का अर्थ, यही है : एक पदार्थ अतीत, अत्यन्त नष्ट हो जाता है, और दूसरा उत्पन्न होता है। जिसके नाश होने के बाद जो उत्पन्न होता है, वह उसका कार्य होता है। कार्य कारण का केवल इतना ही सम्बन्ध है। कारण किसी भी वस्तु को अपने अन्तस्तम में बाकी रख कर नष्ट नहीं होता।
गौतम बुद्ध किसी उपवन में विश्राम कर रहे थे। तभी बच्चों का एक झुंड आया और पेड़ पर पत्थर मारकर आम गिराने लगा। एक पत्थर बुद्ध के सर पर लगा और उस से खून बहने लगा। बुद्ध की आँखों में आंसू आ गये। बच्चों ने देखा तो भयभीत हो गये। उन्हें लगा कि अब बुद्ध उन्हें भला बुरा कहेंगे। बच्चों ने उनके चरण पकड़ लिए और उनसे क्षमा याचना करने लगे। उनमे से एक बच्चे ने कहा, ‘हमसे बड़ी भूल हो गई है। मेरी वजह से आपको पत्थर लगा और आपके आंसू आ गये। इस पर बुद्ध ने कहा, ‘बच्चों, मैं इसलिए दुखी हूँ की तुमने आम के पेड़ पर पत्थर मारा तो पेड़ ने बदले में तुम्हे मीठे फल दिए, लेकिन मुझे मारने पर मै तुम्हे सिर्फ भय दे सका।
एक बार भगवानबुद्ध अपने अनुयायियों के साथ किसी गांव में उपदेश देने जा रहे थे। उस गांव सें पूर्व ही मार्ग मे उनलोगों को जगह-जगह बहुत सारे गड्ढे खुदे हुए मिले। बुद्ध के एक शिष्य ने उन गड्ढो को देखकर जिज्ञासा प्रकट की, आखिर इस तरह गढे का खुदे होने का तात्पर्य कया है? बुद्ध बोले,पानी की तलाश में किसी वयक्ति ने इतनें गड्ढे खोदे है। यदि वह धैर्यपूर्वक एक ही स्थान पर गड्ढा खोदता तो उसे पानी अवश्य मिल जाता। पर वह थोडी देर गड्ढा खोदता और पानी न मिलने पर दूसरा गड्ढा खोदना शुरू कर देता । व्यक्ति को परिश्रम करने के साथ धैर्य भी रखना चाहिए।
एक बार भगवान बुद्ध भिक्षा के लिऐ एक किसान के यहां पहुंचे । तथागत को भिक्षा के लिये आया देखकर किसान उपेक्षा से बोला श्रमण मैं हल जोतता हूं और तब खाता हूं तुम्हें भी हल जोतना और बीज बोना चाहिए और तब खाना खाना चाहिऐ बुद्ध ने कहा महाराज मैं भी खेती ही करता हूं इस पर किसान को जिज्ञासा हुयी बोले गौतम मैं न तुम्हारा हल देखता हूं ना न बैल और नही खेती के स्थल। तब आप कैसे कहते हैं कि आप भी खेती ही करते हैं। आप कृपया अपनी खेती के संबंध में समझाएँ। बुद्ध ने कहा महाराज मेरे पास श्रद्धा का बीज तपस्या रूपी वर्षा प्रजा रूपी जोत और हल है पापभीरूता का दंड है विचार रूपी रस्सी है स्मृति और जागरूकता रूपी हल की फाल और पेनी है मैं बचन और कर्म में संयत रहता हूं । में अपनी इस खेती को बेकार घास से मुक्त रखता हूं और आनंद की फसल काट लेने तक प्रयत्नशील रहने वाला हूं अप्रमाद मेरा बैल हे जो बाधाऐं देखकर भी पीछे मुंह नहीं मोडता है। वह मुझे सीधा शान्ति धाम तक ले जाता है । इस प्रकार मैं अमृत की खेती करता हूं।
एक बार बुद्ध से मलुक्यपुत्र ने पूछा, भगवन आपने आज तक यह नहीं बताया कि मृत्यु के उपरान्त क्या होता है? उसकी बात सुनकर बुद्ध मुस्कुराये, फिर उन्होंने उससे पूछा, पहले मेरी एक बात का जबाव दो। अगर कोई व्यक्ति कहीं जा रहा हो और अचानक कहीं से आकर उसके शरीर में एक विषबुझा बाण घुस जाये तो उसे क्या करना चाहिए ? पहले शरीर में घुसे बाण को हटाना ठीक रहेगा या फिर देखना कि बाण किधर से आया है और किसे लक्ष्य कर मारा गया है ! मलुक्यपुत्र ने कहा, पहले तो शरीर में घुसे बाण को तुरंत निकालना चाहिए, अन्यथा विष पूरे शरीर में फ़ैल जायेगा । बुद्ध ने कहा, बिल्कुल ठीक कहा तुमने, अब यह बताओ कि पहले इस जीवन के दुखों के निवारण का उपाय किया जाये या मृत्यु की बाद की बातों के बारे में सोचा जाये। मलुक्यपुत्र अब समझ चुका था और उसकी जिज्ञासा शांत हो गई।
एक दिन एक व्यक्ति बुद्ध के पास पहुँचा। वह बहुत अधिक तनाव में था। अनेक प्रश्न उसके दिमाग में घूम-घूमकर उसे परेशान कर रहे थे–जैसे आत्मा क्या है? आदमी मृत्यु के बाद कहाँ जाता है? सृष्टि का निर्माता कौन है? स्वर्ग-नरक की अवधारणा कहाँ तक सच है और ईश्वर है या नहीं? उसे इन प्रश्नों के उत्तर नहीं मिल रहे थे। जब वह बुद्ध के पास पहुँचा तो उसने देखा कि बुद्ध को कई लोग घेरकर बैठे हैं। बुद्ध उन सभी के प्रश्नों व जिज्ञासाओं का समाधान अत्यंत सहज भाव से कर रहे हैं। काफी देर तक यह क्रम चलता रहा, किंतु बुद्ध धर्यपूर्वक हर एक को संतुष्ट करते रहे। बेचारा व्यक्ति वहाँ का हाल देखकर परेशान हो गया। उसने सोचा कि इन्हें दुनियादारी के मामलों में पड़ने से क्या लाभ? अपना भगवद् भजन करें और बुनियादी समस्याओं से ग्रस्त इन लोगों को भगाएँ, किंतु बुद्ध का व्यवहार देखकर तो ऐसा लग रहा था मानो इन लोगों का दुःख उनका अपना दुःख है। आखिर उस व्यक्ति ने पूछ ही लिया, “महाराज आपको इन सांसारिक बातों से क्या लेना-देना?” बुद्ध बोले, “मैं ज्ञानी नहीं हूँ, और इनसान हूँ। वैसे भी वह ज्ञान किस काम का, जो इतना घमंडी और आत्मकेंद्रित हो कि अपने अतिरिक्त दूसरे की चिंता ही न कर सके? ऐसा ज्ञान तो अज्ञान से भी बुरा है।” बुद्ध की बातें सुनकर व्यक्ति की उलझन दूर हो गई। उस दिन से उसकी सोच व आचरण दोनों बदल गए। कथा का सार यह है कि ज्ञान तभी सार्थक होता है, जब वह लोक कल्याण में संलग्न हो। (भरतलाल शर्मा)
महात्मा बुद्ध एक गाँव में ठहरे हुए थे। वे प्रतिदिन शाम को वहाँ पर सत्संग करते थे। भक्तों की भीड़ होती थी, क्योंकि उनके प्रवचनों से जीवन को सही दिशा बोध प्राप्त होता था। बुद्ध की वाणी में गजब का जादू था। उनके शब्द श्रोता के दिल में उतर जाते थे। एक युवक प्रतिदिन बुद्ध का प्रवचन सुनता था। एक दिन जब प्रवचन समाप्त हो गए, तो वह बुद्ध के पास गया और बोला, ‘महाराज! मैं काफी दिनों से आपके प्रवचन सुन रहा हूँ, किंतु यहाँ से जाने के बाद मैं अपने गृहस्थ जीवन में वैसा सदाचरण नहीं कर पाता, जैसा यहाँ से सुनकर जाता हूँ। इससे सत्संग के महत्त्व पर शंका भी होने लगती है। बताइए, मैं क्या करूँ?’ बुद्ध ने युवक को बाँस की एक टोकरी देते हुए उसमें पानी भरकर लाने के लिए कहा। युवक टोकरी में जल भरने में असफल रहा। बुद्ध ने यह कार्य निरंतर जारी रखने के लिए कहा। युवक प्रतिदिन टोकरी में जल भरने का प्रयास करता, किंतु सफल नहीं हो पाता। कुछ दिनों बाद बुद्ध ने उससे पूछा, “इतने दिनों से टोकरी में लगातार जल डालने से क्या टोकरी में कोई फर्क नजर आया? ” युवक बोला, “एक फर्क जरूर नजर आया है। पहले टोकरी के साथ मिट्टी जमा होती थी, अब वह साफ दिखाई देती है। कोई गंदगी नहीं दिखाई देती है और इसके छेद पहले जितने बड़े नहीं रह गए, वे बहुत छोटे हो गए हैं।” तब बुद्ध ने उसे समझाया, “यदि इसी तरह उसे पानी में निरंतर डालते रहोगे तो कुछ ही दिनों में ये छेद फूलकर बंद हो जाएँगे और टोकरी में पानी भर पाओगे। इसी प्रकार जो निरंतर सत्संग करते हैं, उनका मन एक दिन अवश्य निर्मल हो जाता है, अवगुणों के छिद्र भरने लगते हैं और गुणों का जल भरने लगता है।’” युवक ने बुद्ध से अपनी समस्या का समाधान पा लिया। निरंतर सत्संग से दुर्जन भी सज्जन हो जाते हैं, क्योंकि महापुरुषों की पवित्र वाणी उनके मानसिक विकारों को दूर कर उनमें सद्विचारों का आलोक प्रसारित कर देती है। (भरतलाल शर्मा)
एक आदमी को बुद्ध ने सुझाव दिया कि दूर से पानी लाते हो, क्यों नहीं अपने घर के पास एक कुआँ खोद लेते? हमेशा के लिए पानी की समस्या से छुटकारा मिल जाएगा। सलाह मानकर उस आदमी ने कुआँ खोदना शुरू किया, लेकिन सात-आठ फीट खोदने के बाद उसे पानी तो क्या, गीली मिट्टी का भी चिह्न नहीं मिला। उसने वह जगह छोड़कर दूसरी जगह खुदाई शुरू की, लेकिन दस फीट खोदने के बाद भी उसमें पानी नहीं निकला। उसने फिर तीसरी जगह कुआँ खोदना शुरू किया, लेकिन यहाँ भी उसे निराशा ही हाथ लगी। इस क्रम में उसने आठ-दस फीट के दस कुएँ खोद डाले, लेकिन पानी कहीं नहीं मिला। वह निराश होकर बुद्ध के पास गया, उसने बुद्ध को बताया कि मैंने दस कुएँ खोद डाले, मगर पानी एक में भी नहीं निकला। बुद्ध को आश्चर्य हुआ। वे स्वयं चलकर उस स्थान पर आए, जहाँ उसने दस गड्ढे खोदे हुए थे। बुद्ध ने उन गड्ढों की गहराई देखी और सारा माजरा समझ गए। फिर वे बोले, ”दस कुएँ खोदने की बजाय एक कुएँ में ही तुम अपना सारा परिश्रम लगाते तो पानी कब का मिल गया होता। तुम सब गड्ढों को बंद कर दो, केवल एक को गहरा करते जाओ, पानी निकल आएगा। उसने बुद्ध की बात मानकर ऐसा ही किया, परिणामस्वरूप कुआँ पूर्ण होते ही पानी निकल आया। सबने भगवान बुद्ध की जय-जयकार की। (भरतलाल शर्मा)
धन्ना सेठ के पास सात पुश्तों के पालन-पोषण जितना धन था। उसका व्यापार चारों तरफ फैला हुआ था, किंतु फिर भी उसका मन अशांत रहता था। कभी धन की सुरक्षा की चिंता, तो कभी व्यापारिक प्रतिस्पर्धा में आगे निकलने का तनाव। चिंता और तनाव के कारण वह अस्वस्थ रहने लगा। उसके मित्र ने उसकी गिरती दशा देखी, तो उसे बुद्ध के पास जाने की सलाह दी। सेठ बुद्ध के पास पहुँचा और अपनी समस्या बताई। बुद्ध ने उसे सांत्वना देते हुए कहा, “तुम घबराओ मत। तुम्हारा कष्ट अवश्य दूर होगा। बस, तुम यहाँ कुछ दिन रहकर ध्यान किया करो।’” बुद्ध के कहे अनुसार सेठ ने रोज ध्यान करना शुरू कर दिया, किंतु सेठ का मन ध्यान में नहीं लगा। वह जैसे ही ध्यान करने बैठता, उसका मन फिर अपनी दुनिया में चला जाता। उसने बुद्ध को यह बात बताई, किंतु बुद्ध ने कोई उपाय नहीं बताया। थोड़ी देर बाद जब सेठ बुद्ध के साथ वन में सायंकालीन भ्रमण कर रहा था, तो उसके पैर में एक काँटा चुभ गया। वह दर्द के मारे कराहने लगा। बुद्ध ने कहा, “बेहतर होगा कि तुम जी कड़ा कर काँटे को निकाल दो, तब इस दर्द से मुक्ति मिल जाएगी।” सेठ ने मन कड़ा कर काँटा निकाल दिया। उसे चैन मिल गया। तब बुद्ध ने उसे समझाया, ”ऐसे ही लोभ, मोह, क्रोध, घमंड व द्वेष के काँटे तुम्हारे मन में गड़े हैं। जब तक अपने मन की संकल्प शक्ति से उन्हें नहीं निकालोगे, अशांत ही रहोगे।” सेठ का अज्ञान बुद्ध के इन शब्दों से दूर हो गया और उसने निर्मल हृदय की राह पकड़ ली। अपनी कुप्रवृत्तियों से मुक्ति के लिए संकल्पबद्धता अनिवार्य है। जब तक व्यक्ति दृढ़-निश्चय न कर ले, वह अपनी गलत आदतों से मुक्त नहीं हो सकता। (भरतलाल शर्मा)
एक युवक ने बुद्ध से आकर कहा, ““मेरा गाँव अशिक्षित है। मैं अपने परिवार से झगड़कर थोड़ा-बहुत पढ़ पाया हूँ। आगे और पढ़ना चाहता हूँ, किंतु सभी रोक रहे हैं। घर के लोग सोचते हैं कि खेती में खूब पैसा है और उसके लिए किसी शिक्षा की आवश्यकता नहीं है। यही सोच गाँववालों की भी है। कृपया आप मेरे गाँव चलकर वहाँ शिक्षा का प्रसार करवाइए।” बुद्ध युवक की बात मानकर गाँव आ गए। धर्म भीरु ग्रामीणों ने बुद्ध का सत्कार किया और रोज उनके प्रवचन सुनने आने लगे। बुद्ध जब भी शिक्षा का महत्त्व बताते, ग्रामीण विरोधी मत रखते। एक दिन एक महिला अपने पाँच साल के बच्चे के लिए पूछने लगी कि उसे किस उम्र से शिक्षा दिलवाएँ? तब बुद्ध ने समझाया कि तुम्हें तो पाँच वर्ष पूर्व उसकी शिक्षा शुरू कर देनी थी। उसे क्या खाना है, कया नहीं, कैसे व क्या बोलना है आदि बातें शुरू से सिखाओगी, तभी तो वह अपना उचित खयाल रख सकेगा। बुद्ध की यह बात महिला सहित सभी ग्रामीणों को समझ में आ गई। उन्होंने अपने बच्चों को विद्यालय भेजना शुरू किया। यह समय वर्षा का था। युवक ने लोगों को जल संग्रहण की तकनीक बताई। अधिकांश ने उपहास किया, किंतु युवक अपना काम करता रहा। बुद्ध का सहयोग प्राप्त था, इसलिए किसी ने उसका खुलकर विरोध नहीं किया। जब गरमी में भीषण जलसंकट के कारण फसलें सूखने लगीं, तो युवक ने कुएँ खुदवाए, जिनमें जल संग्रहण की तकनीक के कारण खूब पानी निकला। ग्रामीण अब शिक्षा का महत्त्व समझ चुके थे। धीरे-धीरे संपूर्ण गाँव शिक्षित हो गया। ज्ञान हर उम्र में अर्जित किया जा सकता है। यही ज्ञान हमें जीवन में आने वाली समस्याओं के समाधान की राह सुझाता है। (भरतलाल शर्मा)
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