24 Download
Free download भक्तामर स्तोत्र | Bhaktamar Stotra PDF In This Website. Available 100000+ Latest high quality PDF For ebook, PDF Book, Application Form, Brochure, Tutorial, Maps, Notification & more... No Catch, No Cost, No Fees. भक्तामर स्तोत्र | Bhaktamar Stotra for free to Your Smartphone And Other Device.. Start your search More PDF File and Download Great Content in PDF Format in category Religion & Spirituality
2 weeks ago
भक्तामर स्तोत्र PDF, Bhaktamar Stotra In Sanskrit PDF, भक्तामर स्तोत्र मानतुंग आचार्य, भक्तामर स्तोत्र की महिमा, भक्तामर आरती, भक्तामर स्तोत्र हिंदी अर्थ, भक्तामर स्तोत्र के लाभ, भक्तामर स्तोत्र पाठ विधि PDF Free Download
भक्तामर-प्रणत-मौलि-मणि-प्रभाणा-
मुद्योतकं दलित-पाप-तमो-वितानम् |
मुद्योतकं दलित-पाप-तमो-वितानम् |
सम्यक् प्रणम्य जिन-पाद-यु वालम्बनं भव-जले पततां जनानाम् ||१||
य: संस्तुत: सकल-वाड़्मय-तत्त्व-बोधा-
दुद्भूत-बुद्धि-पटुभि: सुर-लोकनाथै: |
स्तोत्रैर्जगत् – त्रितय – चित्त – हरैरुदारै:,
स्तोष्ये किलाहमपि तं प्रथमं जिनेन्द्रम् ||२||
बुद्धया विनापि विबुधार्चित-पाद-पीठ
स्तोतुं समुद्यत-मतिर्विगत-त्रपोऽहम् |
बालं विहाय जल-संस्थितमिन्दु-बिम्ब-
मन्य: क इच्छति जन: सहसा ग्रहीतुम् ||३||
वक्तुं गुणान्गुण-समुद्र शशांक-कान्तान्,
कस्ते क्षम: सुर-गुरु-प्रतिमोऽपि बुद्ध्या |
कल्पान्त-काल-पवनोद्धत-नक्र-चक्रम्,
को वा तरीतुमलमम्बुनिधिं भुजाभ्याम् ||4||
सोऽहं तथापि तव भक्ति-वशान्मुनीश!
कर्तुं स्तवं विगत-शक्तिरपि प्रवृत्त: |
प्रीत्यात्म-वीर्यमविचार्य मृगी मृगेन्द्रम्,
नाभ्येति किं निज-शिशो: परिपालनार्थम् ||५||
अल्प-श्रुतं श्रुतवतां परिहास-धाम!
त्वद्भक्तिरेव मुखरीकुरुते बलान्माम् |
यत्कोकिल: किल मधौ मधुरं विरौति,
तच्चाम्र-चारु-कलिका-निकरैक-हेतु: ||६||
त्वत्संस्तवेन भव-सन्तति-सन्निबद्धम्,
पापं क्षणात्क्षयमुपैति शरीरभाजाम्|
आक्रान्त-लोकमलि-नीलमशेषमाशु,
सूर्यांशु-भिन्नमिव शार्वरमन्धकारम् ||७||
मत्त्वेति नाथ! तव संस्तवनं मयेद-
मारभ्यते तनु-धियापि तव प्रभावात् |
चेतो हरिष्यति सतां नलिनी-दलेषु,
मुक्ता-फलद्युतिमुपैति ननूद-बिन्दु: ||८||
आस्तां तव स्तवनमस्त-समस्त-दोषम्,
त्वत्संकथाऽपि जगतां दुरितानि हन्ति ।
दूरे सहस्रकिरण: कुरुते प्रभैव,
पद्माकरेषु जलजानि विकासभाञ्जि ।।९।।
नात्यद्भुतं भुवन-भूषण भूत-नाथ!
भूतैर्गुणैर्भुवि भवन्तमभिष्टुवन्त: |
तुल्या भवन्ति भवतो ननु तेन किं वा,
भूत्याश्रितं य इह नात्मसमं करोति ||१०||
दृष्ट्वा भवन्तमनिमेष-विलोकनीयम्,
नान्यत्र तोषमुपयाति जनस्य चक्षु: |
पीत्वा पय: शशिकर-द्युति-दुग्ध-सिन्धो:,
क्षारं जलं जल-निधे रसितुं क: इच्छेत् ||११||
यै: शान्त-राग-रुचिभि: परमाणुभिस्त्वम्,
निर्मापितस्त्रिभुवनैक – ललाम – भूत !
तावन्त एव खलु तेऽप्यणव: पृथिव्याम्,
यत्ते समानमपरं न हि रूपमस्ति ||१२||
वक्त्रं क्व ते सुर-नरोरग-नेत्र-हारि,
नि:शेष-निर्जित-जगत्त्रितयोपमानम् |
बिम्बं कलंक-मलिनं क्व निशाकरस्य,
यद्वासरे भवति पांडु-पलाश-कल्पम् ||१३||
सम्पूर्ण-मंडल-शशांक-कला-कलाप-
शुभ्रा गुणास्त्रिभुवनं तव लंघयन्ति |
ये संश्रितास्त्रिजगदीश्वर-नाथमेकम्,
कस्तान्निवारयति संचरतो यथेष्टम् ||१४||
चित्रं किमत्र यदि ते त्रिदशांगनाभि-
र्नीतं मनागपि मनो न विकार-मार्गम् |
कल्पान्त-काल-मरुता चलिताचलेन,
किं मन्दराद्रि-शिखरं चलितं कदाचित् ||१५||
निर्धूम – वर्तिरपवर्जित – तैल – पूर:,
कृत्स्नं जगत्त्रयमिदं प्रकटीकरोषि |
गम्यो न जातु मरुतां चलिताचलानाम्,
दीपोऽपरस्त्वमसि नाथ जगत्प्रकाश: ||१६||
नास्तं कदाचिदुपयासि न राहु-गम्य:,
स्पष्टीकरोषि सहसा युगपज्जगन्ति |
नाम्भोधरोदर-निरुद्ध-महा-प्रभाव:,
सूर्यातिशायि-महिमासि मुनीन्द्र! लोके ||१७||
नित्योदयं दलित-मोह-महान्धकारम्,
गम्यं न राहु-वदनस्य न वारिदानाम् |
विभ्राजते तव मुखाब्जमनल्पकान्ति,
विद्योतयज्जगदपूर्व-शशान्क-बिम्बम् ||१८||
किं शर्वरीषु शशिनाऽह्नि विवस्वता वा,
युष्मन्मुखेन्दु-दलितेषु तम:सु नाथ |
निष्पन्न-शालि-वन-शालिनि जीव-लोके,
कार्यं कियज्जलधरैर्जल-भार-नम्रै: ||१९||
ज्ञानं यथा त्वयि विभाति कृतावकाशम्, नैवं तथा हरिहरादिषु नायकेषु |
तेज: स्फुरन्मणिषु याति यथा महत्त्वम्,
नैवं तु काच-शकले किरणाकुलेऽपि ||२०||
मन्ये वरं हरिहरादय एव दृष्टा,
दृष्टेषु येषु हृदयं त्वयि तोषमेति |
किं वीक्षितेन भवता भुवि येन नान्य:,
कश्चिन्मनो हरति नाथ! भवान्तरेऽपि ||२१||
स्त्रीणां शतानि शतशो जनयन्ति पुत्रान्,
नान्या सुतं त्वदुपमं जननी प्रसूता |
सर्वा दिशो दधति भानि सहस्र-रश्मिम्,
प्राच्येव दिग्जनयति स्फुरदंशुजालम् ||२२||
त्वामामनन्ति मुनय: परमं पुमांस-
मादित्य-वर्णममलं तमस: पुरस्तात् |
त्वामेव सम्यगुपलभ्य जयन्ति मृत्युम्,
नान्य: शिव: शिवपदस्य मुनीन्द्र! पन्था: ||२३||
त्वामव्ययं विभुमचिन्त्यमसंख्यमाद्यम्,
ब्रह्माण-मीश्वर-मनन्त-मनंगकेतुम् |
योगीश्वरं विदितयोगमनेकमेकम्,
ज्ञानस्वरूपममलं प्रवदन्ति सन्त: ||२४||
बुद्धस्त्वमेव विबुधार्चित-बुद्धि-बोधात्,
त्वं शंकरोऽसि भुवन-त्रय-शंकरत्वात् |
धातासि धीर! शिवमार्ग-विधेर्विधानात्,
व्यक्तं त्वमेव भगवन्! पुरुषोत्तमोऽसि ||२५||
तुभ्यं नमस्त्रिभुवनार्ति-हराय नाथ!
तुभ्यं नम: क्षिति-तलामल-भूषणाय |
तुभ्यं नमस्त्रिजगत: परमेश्वराय,
तुभ्यं नमो जिन! भवोदधि-शोषणाय ||२६||
को विस्मयोऽत्र यदि नाम गुणैरशेषै-
स्त्वं संश्रितो निरवकाशतया मुनीश !
दोषैरुपात्त-विविधाश्रय – जात – गर्वैः
स्वप्नान्तरेऽपि न कदाचिदपीक्षितोऽसि ||२७||
उच्चैरशोक – तरु – संश्रितमुन्मयूख-
माभाति रूपममलं भवतो नितान्तम् |
स्पष्टोल्लसत्किरणमस्त-तमो-वितानम्,
बिम्बं रवेरिव पयोधर-पाश्र्ववर्ति ||२८||
सिंहासने मणि-मयूख-शिखा-विचित्रे,
विभ्राजते तव वपु: कनकावदातम् |
बिम्बं वियद्विलसदंशुलता-वितानम्,
तुंगोदयाद्रि-शिरसीव सहस्र-रश्मे: ||२९||
कुन्दावदात-चल-चामर-चारु-शोभम्,
विभ्राजते तव वपु: कलधौत-कान्तम् |
उद्यच्छ्शांक शुचि-निर्झर-वारि-धार-
मुच्चैस्तटं सुरगिरेरिव शातकौम्भम् ||३०||
छत्र-त्रयं तव विभाति शशांककान्त-
मुच्चै: स्थितं स्थगित-भानु-कर-प्रतापम् |
मुक्ता-फल-प्रकर-जाल-विवृद्ध-शोभम्,
प्रख्यापयत्त्रिजगत: परमेश्वरत्वम् ||३१||
गम्भीर-तार-रव-पूरित-दिग्विभाग-
स्त्रैलोक्य-लोक-शुभ-संगमभूतिदक्ष: |
सद्धर्मराज-जय-घोषण-घोषक: सन्,
खे दुन्दुभिर्व्-नति ते यशस: प्रवादी ||३२||
मन्दार – सुन्दर – नमेरु – सुपारिजात-
सन्तानकादि-कुसुमोत्कर-वृष्टिरुद्धा |
गन्धोद-बिन्दु-शुभ-मन्द-मरुत्प्रयाता,
दिव्या दिव: पतति ते वचसां ततिर्वा ||३३||
शुम्भत्प्रभा-वलय-भूरि-विभाविभोस्ते,
लोकत्रये द्युतिमतां द्युतिमाक्षिपन्ति |
प्रोद्यद्दिवाकर-निरन्तर-भूरि – संख्या,
दीप्त्या जयत्यपि निशामपि सोम-सौम्याम् ||३४||
स्वर्गापवर्ग-गम-मार्ग-विमार्गणेष्ट:,
सद्धर्म-तत्त्व-कथनैक-पटुस्त्रिलोक्या: |
दिव्य-ध्वनिर्भवति ते विशदार्थ-सर्व-
भाषा-स्वभाव-परिणाम-गुणै: प्रयोज्य: ||३५||
उन्निद्र-हेम-नव-पंकज-पुञ्ज-कान्ती,
पर्युल्लसन्नख-मयूख-शिखाभिरामौ |
पादौ पदानि तव यत्र जिनेन्द्र! धत्त:,
पद्मानि तत्र विबुधा: परिकल्पयन्ति ||३६||
इत्थं यथा तव विभूतिरभूज्जिनेन्द्र!
धर्मोपदेशन – विधौ न तथा परस्य |
यादृक्प्रभा दिनकृत: प्रहतान्धकारा,
तादृक्कुतो ग्रह-गणस्य विकाशिनोऽपि ||३७||
श्च्योतन्मदाविल-विलोल-कपोल-मूल-
मत्त-भ्रमद्-भ्रमर-नाद-विवृद्ध-कोपम् |
ऐरावताभमिभ मुद्धतमापतन्तम्,
दृष्ट्वा भयं भवति नो भवदाश्रितानाम् ||३८||
भिन्नेभ-कुम्भ-गलदुज्ज्वल-शोणिताक्त-
मुक्ता-फल-प्रकर-भूषित-भूमि-भाग: |
बद्ध-क्रम: क्रम-गतं हरिणाधिपोऽपि,
नाक्रामति क्रम-युगाचल-संश्रितं ते ||३९||
कल्पान्त-काल-पवनोद्धत-वह्नि-कल्पम्,
दावानलं ज्वलितमुज्ज्वलमुत्स्फुलिंगम् |
विश्वं जिघत्सुमिव सम्मुखमापतन्तम्,
त्वन्नाम-कीर्तन-जलं शमयत्यशेषम् ||४०||
रक्तेक्षणं समद-कोकिल-कण्ठ-नीलम्,
क्रोधोद्धतं फणिनमुत्फणमापतन्तम् |
आक्रामति क्रम-युगेण निरस्त-शंक-
स्त्वन्नाम-नागदमनी हृदि यस्य पुंस: ||४१||
वल्गत्तुरंगगज-गर्जित-भीमनाद-
माजौ बलं बलवतामपि भूपतीनाम् |
उद्यद्दिवाकर-मयूख-शिखापविद्धम्,
त्वत्कीर्तनात्तम इवाशु भिदामुपैति ||४२||
कुन्ताग्र-भिन्न-गज-शोणित-वारिवाह-
वेगावतार – तरणातुर – योध-भीमे |
युद्धे जयं विजित-दुर्जय-जेय-पक्षा-
स्त्वत्पाद-पंकज-वनाश्रयिणो लभन्ते ||४३||
अम्भोनिधौक्षुभित-भीषण-नक्र-चक्र-
पाठीन-पीठ-भय-दोल्वण – वाड़वाग्नौ |
रंगत्तरंग-शिखर-स्थित-यान-पात्रास्-
त्रासं विहाय भवत: स्मरणाद् व्रजन्ति ||४४||
उद्भूत-भीषण-जलोदर-भार-भुग्ना:,
शोच्यां दशामुपगताश्च्युत-जीविताशा: |
त्वत्पाद-पंकज-रजोऽमृत-दिग्ध-देहा,
मर्याna भवन्ति मकरध्वज-तुल्यरूपा: ||४५||
आपाद-कण्ठमुरु-श्रृंखल-वेष्टितांगा:,
गाढं वृहन्निगड-कोटि-निघृष्ट-जंघा: |
त्वन्नाम-मन्त्रमनिशं मनुजा: स्मरन्त:,
सद्य: स्वयं विगत-बन्ध-भया भवन्ति ||४६||
मत्तद्विपेन्द्र – मृगराज-दवानलाहि-
संग्राम-वारिधि-महोदर-बन्धनोत्थम् |
तस्याशु नाशमुपयाति भयं भियेव,
यस्तावकं स्तवमिमं मतिमान धी ते ||४७||
स्तोत्र-स्रजं तव जिनेन्द्र! गुणैर्निबद्धाम्,
भक्त्या मया रुचिर-वर्ण-विचित्र-पुष्पाम् |
धत्ते जनो य इह कण्ठ-गतामजस्रम्,
तं ‘मानतुंग’मवशा समुपैति लक्ष्मी: ||४८||
।। इति श्रीमानतुङ्गाचार्य-विरचितं आदिनाथ-स्तोत्रं समाप्तम् ।।
श्री भक्तामर का पाठ, करो नित प्रात,
भक्ति मन लाई। सब संकट जाएँ नशाई॥
जो ज्ञान-मान-मतवारे थे, मुनि मानतुङ्ग से हारे थे |
चतुराई से उनने नृपति लिया बहकाई। सब संकट जायँ नशाई ||१||
मुनि जी को नृपति बुलाया था, सैनिक जा हुक्म सुनाया था |
मुनि-वीतराग को आज्ञा नहीं सुहाई। सब संकट जायँ नशाई ||२||
उपसर्ग घोर तब आया था, बलपूर्वक पकड़ मंगाया था |
हथकड़ी बेड़ियों से तन दिया बंधाई। सब संकट जायँ नशाई ||३||
मुनि कारागृह भिजवाये थे, अड़तालिस ताले लगाये थे |
क्रोधित नृप बाहर पहरा दिया बिठाई। सब संकट जायँ नशाई ||४||
मुनि शांतभाव अपनाया था, श्री आदिनाथ को ध्याया था |
हो ध्यान-मग्न ‘भक्तामर’ दिया बनाई। सब संकट जायँ नशाई ||५||
सब बंधन टूट गये मुनि के, ताले सब स्वयं खुले उनके |
कारागृह से आ बाहर दिये दिखाई। सब संकट जायँ नशाई ||६||
राजा नत होकर आया था, अपराध क्षमा करवाया था |
मुनि के चरणों में अनुपम-भक्ति दिखाई। सब संकट जायँ नशाई ||७||
जो पाठ भक्ति से करता है, नित ऋभष-चरण चित धरता है |
जो ऋद्धि-मंत्र का विधिवत् जाप कराई। सब संकट जायँ नशाई ||८||
भय विघ्न उपद्रव टलते हैं, विपदा के दिवस बदलते हैं |
सब मनवाँछित हों पूर्ण, शांति छा जाई। सब संकट जायँ नशाई ||९||
जो वीतराग-आराधन है, आतम-उन्नति का साधन है |
उससे प्राणी का भव-बन्धन कट जाई। सब संकट जायँ नशाई ||१०||
‘कौशल’ सुभक्ति को पहिचानो, संसार-दृष्टि बंधन जानो |
लो ‘भक्तामर’ से आत्म-ज्योति प्रकटाई। सब संकट जायँ नशाई ||११||
PDF Name: | Bhaktamar-Stotra |
File Size : | 65 kB |
PDF View : | 0 Total |
Downloads : | Free Downloads |
Details : | Free Download Bhaktamar-Stotra to Personalize Your Phone. |
File Info: | This Page PDF Free Download, View, Read Online And Download / Print This File File |
Copyright/DMCA: We DO NOT own any copyrights of this PDF File. This भक्तामर स्तोत्र | Bhaktamar Stotra PDF Free Download was either uploaded by our users @Brand PDF or it must be readily available on various places on public domains and in fair use format. as FREE download. Use For education proposal. If you want this भक्तामर स्तोत्र | Bhaktamar Stotra to be removed or if it is copyright infringement, do drop us an email at [email protected] and this will be taken down within 24 hours!
© PDFBrand.com : Official PDF Site : All rights reserved.