31 Download
Free download गुरु महिमा | Guru Mahima PDF In This Website. Available 100000+ Latest high quality PDF For ebook, PDF Book, Application Form, Brochure, Tutorial, Maps, Notification & more... No Catch, No Cost, No Fees. गुरु महिमा | Guru Mahima for free to Your Smartphone And Other Device.. Start your search More PDF File and Download Great Content in PDF Format in category Religion & Spirituality
1 month ago
गुरु महिमा | Guru Mahima PDF, गुरु महिमा और नाम स्मरण, गुरु महिमा के श्लोक, गुरु की महिमा पर लेख, गुरु का गुणगान, कबीर गुरु महिमा पाठ, वेदों में गुरु महिमा PDF Free Download
प्रत्येक ग्रंथ में गुरु के विचार की प्रशंसा की गई है। ईश्वर की उपस्थिति अद्वितीय हो सकती है, हालांकि इस बिंदु तक, मास्टर ने किसी भी भेद का सामना नहीं किया है। गुरु के पीछे सब चलते हैं। हर गुरु ने अलग-अलग गुरुओं के साथ सर्वोच्च सम्मान, सम्मान और प्रतिबद्धता के साथ व्यवहार किया है। गुरुवाणी के आधार पर कई भारतीय संगठनों की स्थापना की गई।
“गु” शाम का प्रतीक है, जबकि “रु” दिन का समय दर्शाता है। गुरु वह व्यक्ति है जो सूचनाओं की रोशनी दिखाता है और विस्मृति के धुंधलेपन को बिखेरता है। हमारे शास्त्रों में गुरु का स्थान बहुत ऊँचा बताया गया है। जैसा मास्टर शंकर ने बताया
कोई भी मास्टर डिजाइन के बिना नहीं है, जो एक बिरंची और एक अभयारण्य का संयोजन है। अर्थात् ब्रह्मा, विष्णु, महेश ही क्यों न हों, बिना गुरु के विशाल समुद्र से ऊपर कोई नहीं उठ सकता?
पवित्र ग्रंथों में भगवान की तुलना में गुरु की महानता को अधिक चित्रित किया गया है। वास्तव में, यहां तक कि शासक राम और मास्टर श्री कृष्ण ने भी, अपने प्रत्येक प्राकृतिक अवतार में, स्वामी की सेवा की और उन्हें सीखने के लिए श्रद्धांजलि दी। इस तथ्य के बावजूद कि वह एक वास्तविक ईश्वर है, उसने मानव संरचना की अपेक्षा की और दुनिया को समझने में सहायता करने के लिए स्वामी की सेवा की।
संयोग से, व्यक्ति जन्म से ही गुरु बन जाता है। गुरु, सबसे पहले और सबसे महत्वपूर्ण, पिता है जो नासमझ का समर्थन करता है और उसे दुनिया के रास्ते पर ले जाता है। इसके बाद शिक्षा मास्टर व्यक्ति को साफ-सफाई के लिए उपलब्ध सभी जानकारी सिखाते हैं। आगे और अंत में, अन्य दुनियावी शिक्षक हैं जो व्यक्ति को संकट और आनंद, लाभ और दुर्भाग्य के सामान्य पैटर्न से बाहर निकालने में मदद करते हैं, और उसे उसकी आत्मा में खुशी, सद्भाव और पूर्ति को ट्रैक करने के लिए प्रशिक्षित करते हैं। यदि आप गणित के बारे में सोचते हैं, तो आपको ग्रह पर कोई भी गतिविधि करने से पहले इसे सीखना चाहिए।
उदाहरण के लिए, एक युवा महिला को रोटी तैयार करने का तरीका जानने के लिए अपनी माँ से आश्रय लेना चाहिए। अपनी माँ से रोटी बनाना और ले जाना सीखते समय उनका समर्थन किया जाता है। तो इस संसार के अंतहीन पाश से बचना कैसे हो सकता है, जब गुरु के बिना छोटा से छोटा काम करना भी समझ से बाहर है?
हर एक बेहतरीन शख्सियत जो कभी जी चुके हैं। उनमें से हर एक ने एक मास्टर के संगठन को पूरा करने के संबंध में जीत हासिल की है, उनकी सेवा की है, उनके उपहारों को स्वीकार किया है और खुद को आसानी से पहचाने जाने वाले नामों के रूप में सुरक्षित कर लिया है। अनंत काल प्राप्त किया है।
ध्रुव एक युवा साथी था जिसे अपने पिता की देखभाल करने से रोक दिया गया था। वह समतुल्य नवजात शिशु ध्रुव भगवान की गोदी में बैठने को बाध्य था, इस दुनिया में किसी भी पितृतुल्य की चिंता छोड़कर जब उसे नारद जी जैसा गुरु मिला और उसने गुरु मंत्र का जाप किया। मास्टर विवेकानंद का मूल नाम नरेंद्र था। उन्होंने कई संस्थानों का दौरा किया, कई लोगों से बात की, और कई आध्यात्मिक अग्रदूतों का अनुभव किया, लेकिन वे नरेंद्र से “मास्टर विवेकानंद” में केवल मास्टर रामकृष्ण परमहंस के भक्त बनने के बाद ही बदल सके।
गुरु सो ज्ञान जु लीजिये, सीस दीजये दान।
बहुतक भोंदू बहि गये, सखि जीव अभिमान॥१॥
व्याख्या: अपने सिर की भेंट देकर गुरु से ज्ञान प्राप्त करो | परन्तु यह सीख न मानकर और तन, धनादि का अभिमान धारण कर कितने ही मूर्ख संसार से बह गये, गुरुपद – पोत में न लगे।
गुरु की आज्ञा आवै, गुरु की आज्ञा जाय।
कहैं कबीर सो संत हैं, आवागमन नशाय॥२॥
व्याख्या: व्यवहार में भी साधु को गुरु की आज्ञानुसार ही आना – जाना चाहिए | सद् गुरु कहते हैं कि संत वही है जो जन्म – मरण से पार होने के लिए साधना करता है |
गुरु पारस को अन्तरो, जानत हैं सब सन्त।
वह लोहा कंचन करे, ये करि लये महन्त॥३॥
व्याख्या: गुरु में और पारस – पत्थर में अन्तर है, यह सब सन्त जानते हैं। पारस तो लोहे को सोना ही बनाता है, परन्तु गुरु शिष्य को अपने समान महान बना लेता है।
कुमति कीच चेला भरा, गुरु ज्ञान जल होय।
जनम – जनम का मोरचा, पल में डारे धोया॥४॥
व्याख्या: कुबुद्धि रूपी कीचड़ से शिष्य भरा है, उसे धोने के लिए गुरु का ज्ञान जल है। जन्म – जन्मान्तरो की बुराई गुरुदेव क्षण ही में नष्ट कर देते हैं।
गुरु कुम्हार शिष कुंभ है, गढ़ि – गढ़ि काढ़ै खोट।
अन्तर हाथ सहार दै, बाहर बाहै चोट॥५॥
व्याख्या: गुरु कुम्हार है और शिष्य घड़ा है, भीतर से हाथ का सहार देकर, बाहर से चोट मार – मारकर और गढ़ – गढ़ कर शिष्य की बुराई को निकलते हैं।
गुरु समान दाता नहीं, याचक शीष समान।
तीन लोक की सम्पदा, सो गुरु दीन्ही दान॥६॥
व्याख्या: गुरु के समान कोई दाता नहीं, और शिष्य के सदृश याचक नहीं। त्रिलोक की सम्पत्ति से भी बढकर ज्ञान – दान गुरु ने दे दिया।
जो गुरु बसै बनारसी, शीष समुन्दर तीर।
एक पलक बिखरे नहीं, जो गुण होय शारीर॥७॥
व्याख्या: यदि गुरु वाराणसी में निवास करे और शिष्य समुद्र के निकट हो, परन्तु शिष्ये के शारीर में गुरु का गुण होगा, जो गुरु लो एक क्षड भी नहीं भूलेगा।
गुरु को सिर राखिये, चलिये आज्ञा माहिं।
कहैं कबीर ता दास को, तीन लोकों भय नाहिं॥८॥
व्याख्या: गुरु को अपना सिर मुकुट मानकर, उसकी आज्ञा मैं चलो | कबीर साहिब कहते हैं, ऐसे शिष्य – सेवक को तनों लोकों से भय नहीं है |
गुरु सो प्रीतिनिवाहिये, जेहि तत निबहै संत।
प्रेम बिना ढिग दूर है, प्रेम निकट गुरु कंत॥९॥
व्याख्या: जैसे बने वैसे गुरु – सन्तो को प्रेम का निर्वाह करो। निकट होते हुआ भी प्रेम बिना वो दूर हैं, और यदि प्रेम है, तो गुरु – स्वामी पास ही हैं।
गुरु मूरति गति चन्द्रमा, सेवक नैन चकोर।
आठ पहर निरखत रहे, गुरु मूरति की ओर॥१०॥
व्याख्या: गुरु की मूरति चन्द्रमा के समान है और सेवक के नेत्र चकोर के तुल्य हैं। अतः आठो पहर गुरु – मूरति की ओर ही देखते रहो।
गुरु मूरति आगे खड़ी, दुतिया भेद कुछ नाहिं।
उन्हीं कूं परनाम करि, सकल तिमिर मिटि जाहिं॥११॥
व्याख्या: गुरु की मूर्ति आगे खड़ी है, उसमें दूसरा भेद कुछ मत मानो। उन्हीं की सेवा बंदगी करो, फिर सब अंधकार मिट जायेगा।
ज्ञान समागम प्रेम सुख, दया भक्ति विश्वास।
गुरु सेवा ते पाइए, सद् गुरु चरण निवास॥१२॥
व्याख्या: ज्ञान, सन्त – समागम, सबके प्रति प्रेम, निर्वासनिक सुख, दया, भक्ति सत्य – स्वरुप और सद् गुरु की शरण में निवास – ये सब गुरु की सेवा से निलते हैं।
सब धरती कागज करूँ, लिखनी सब बनराय।
सात समुद्र की मसि करूँ, गुरु गुण लिखा न जाय॥१३॥
व्याख्या: सब पृथ्वी को कागज, सब जंगल को कलम, सातों समुद्रों को स्याही बनाकर लिखने पर भी गुरु के गुण नहीं लिखे जा सकते।
पंडित यदि पढि गुनि मुये, गुरु बिना मिलै न ज्ञान।
ज्ञान बिना नहिं मुक्ति है, सत्त शब्द परमान॥१४॥
व्याख्या: बड़े – बड़े विद्व।न शास्त्रों को पढ – गुनकर ज्ञानी होने का दम भरते हैं, परन्तु गुरु के बिना उन्हें ज्ञान नही मिलता। ज्ञान के बिना मुक्ति नहीं मिलती।
कहै कबीर तजि भरत को, नन्हा है कर पीव।
तजि अहं गुरु चरण गहु, जमसों बाचै जीव॥१५॥
व्याख्या: कबीर साहेब कहते हैं कि भ्रम को छोडो, छोटा बच्चा बनकर गुरु – वचनरूपी दूध को पियो। इस प्रकार अहंकार त्याग कर गुरु के चरणों की शरण ग्रहण करो, तभी जीव से बचेगा।
सोई सोई नाच नचाइये, जेहि निबहे गुरु प्रेम।
कहै कबीर गुरु प्रेम बिन, कितहुं कुशल नहिं क्षेम॥१६॥
व्याख्या: अपने मन – इन्द्रियों को उसी चाल में चलाओ, जिससे गुरु के प्रति प्रेम बढता जये। कबीर साहिब कहते हैं कि गुरु के प्रेम बिन, कहीं कुशलक्षेम नहीं है।
तबही गुरु प्रिय बैन कहि, शीष बढ़ी चित प्रीत।
ते कहिये गुरु सनमुखां, कबहूँ न दीजै पीठ॥१७॥
व्याख्या: शिष्य के मन में बढ़ी हुई प्रीति देखकर ही गुरु मोक्षोपदेश करते हैं। अतः गुरु के समुख रहो, कभी विमुख मत बनो।
अबुध सुबुध सुत मातु पितु, सबहिं करै प्रतिपाल।
अपनी ओर निबाहिये, सिख सुत गहि निज चाल॥१८॥
व्याख्या: मात – पिता निर्बुधि – बुद्धिमान सभी पुत्रों का प्रतिपाल करते हैं। पुत्र कि भांति ही शिष्य को गुरुदेव अपनी मर्यादा की चाल से मिभाते हैं।
करै दूरी अज्ञानता, अंजन ज्ञान सुदये।
बलिहारी वे गुरु की हँस उबारि जु लेय॥१९॥
व्याख्या: ज्ञान का अंजन लगाकर शिष्य के अज्ञान दोष को दूर कर देते हैं। उन गुरुजनों की प्रशंसा है, जो जीवो को भव से बचा लेते हैं।
साबुन बिचारा क्या करे, गाँठे वाखे मोय।
जल सो अरक्षा परस नहिं, क्यों कर ऊजल होय॥२०॥
व्याख्या: साबुन बेचारा क्या करे,जब उसे गांठ में बांध रखा है। जल से स्पर्श करता ही नहीं फिर कपडा कैसे उज्जवल हो। भाव – ज्ञान की वाणी तो कंठ कर ली, परन्तु विचार नहीं करता, तो मन कैसे शुद्ध हो।
राजा की चोरी करे, रहै रंक की ओट।
कहै कबीर क्यों उबरै, काल कठिन की चोट॥२१॥
व्याख्या: कोई राजा के घर से चोरी करके दरिद्र की शरण लेकर बचना चाहे तो कैसे बचेगा| इसी प्रकार सद् गुरु से मुख छिपाकर, और कल्पित देवी – देवतओं की शरण लेकर कल्पना की कठिन चोट से जीव कैसे बचेगा|
सतगुरु सम कोई नहीं, सात दीप नौ खण्ड।
तीन लोक न पाइये, अरु इकइस ब्रह्मणड॥२२॥
व्याख्या: सात द्वीप, नौ खण्ड, तीन लोक, इक्कीस ब्रह्मणडो में सद् गुरु के समान हितकारी आप किसी को नहीं पायेंगे |
सतगुरु तो सतभाव है, जो अस भेद बताय।
धन्य शिष धन भाग तिहि, जो ऐसी सुधि पाय॥२३॥
व्याख्या: सद् गुरु सत्ये – भाव का भेद बताने वाला है| वह शिष्य धन्य है तथा उसका भाग्य भी धन्य है जो गुरु के द्वारा अपने स्वरुप की सुधि पा गया है|
सतगुरु मिला जु जानिये, ज्ञान उजाला होय।
भ्रम का भाँडा तोड़ी करि, रहै निराला होय॥२४॥
व्याख्या: सद् गुरु मिल गये – यह बात तब जाने जानो, जब तुम्हारे हिर्दे में ज्ञान का प्रकाश हो जाये, भ्रम का भंडा फोडकर निराले स्वरूपज्ञान को प्राप्त हो जाये|
मनहिं दिया निज सब दिया, मन से संग शरीर।
अब देवे को क्या रहा, यो कथि कहहिं कबीर॥२५॥
व्याख्या: यदि अपना मन तूने गुरु को दे दिया तो जानो सब दे दिया, क्योंकि मन के साथ ही शरीर है, वह अपने आप समर्पित हो गया| अब देने को रहा ही क्या है|
जेही खोजत ब्रह्मा थके, सुर नर मुनि अरु देव।
कहैं कबीर सुन साधवा, करू सतगुरु की सेवा॥२६॥
व्याख्या: जिस मुक्ति को खोजते ब्रह्मा, सुर – नर मुनि और देवता सब थक गये| ऐ सन्तो, उसकी प्राप्ति के लिए सद् गुरु की सेवा करो|
जग में युक्ति अनूप है, साधु संग गुरु ज्ञान।
तामें निपट अनूप है, सतगुरु लगा कान॥२७॥
व्याख्या: दुखों से छूटने के लिए संसार में उपमारहित युक्ति संतों की संगत और गुरु का ज्ञान है| उसमे अत्यंत उत्तम बात यह है कि सतगुरु के वचनों पार कान दो|
डूबा औधर न तरै, मोहिं अंदेशा होय।
लोभ नदी की धार में, कहा पड़ा नर सोय॥२८॥
व्याख्या: कुधर में डूबा हुआ मनुष्य बचता नहीं| मुझे तो यह अंदेशा है कि लोभ की नदी – धारा में ऐ मनुष्यों – तुम कहां पड़े सोते हो|
केते पढी गुनि पचि मुए, योग यज्ञ तप लाय।
बिन सतगुरु पावै नहीं, कोटिन करे उपाय॥२९॥
व्याख्या: कितने लोग शास्त्रों को पढ – गुन और योग व्रत करके ज्ञानी बनने का ढोंग करते हैं, परन्तु बिना सतगुरु के ज्ञान एवं शांति नहीं मिलती, चाहे कोई करोडों उपाय करे|
सतगुरु खोजे संत, जीव काज को चाहहु।
मेटो भव के अंक, आवा गवन निवारहु॥३०॥
व्याख्या: ऐ संतों – यदि अपने जीवन का कल्याण चाहो, तो सतगुरु की खोज करो और भव के अंक अर्थात छाप, दाग या पाप मिटाकर, जन्म – मरण से रहित हो जाओ|
यह सतगुरु उपदेश है, जो माने परतीत।
करम भरम सब त्यागि के, चलै सो भव जलजीत॥३१॥
व्याख्या: यही सतगुरु का यथार्थ उपदेश है, यदि मन विश्वास करे, सतगुरु उपदेशानुसार चलने वाला करम भ्रम त्याग कर, संसार सागर से तर जाता है|
जाका गुरु है आँधरा, चेला खरा निरंध।
अन्धे को अन्धा मिला, पड़ा काल के फन्द॥३२॥
व्याख्या: जिसका गुरु ही अविवेकी है उसका शिष्य स्वय महा अविवेकी होगा| अविवेकी शिष्य को अविवेकी गुरु मिल गया, फलतः दोनों कल्पना के हाथ में पड़ गये|
जनीता बुझा नहीं बुझि, लिया नहीं गौन।
अंधे को अंधा मिला, राह बतावे कौन॥३३॥
व्याख्या: विवेकी गुरु से जान – बुझ – समझकर परमार्थ – पथ पर नहीं चला| अंधे को अंधा मिल गया तो मार्ग बताये कौन|
PDF Name: | Guru-Mahima |
File Size : | 81 kB |
PDF View : | 0 Total |
Downloads : | Free Downloads |
Details : | Free Download Guru-Mahima to Personalize Your Phone. |
File Info: | This Page PDF Free Download, View, Read Online And Download / Print This File File |
Copyright/DMCA: We DO NOT own any copyrights of this PDF File. This गुरु महिमा | Guru Mahima PDF Free Download was either uploaded by our users @Brand PDF or it must be readily available on various places on public domains and in fair use format. as FREE download. Use For education proposal. If you want this गुरु महिमा | Guru Mahima to be removed or if it is copyright infringement, do drop us an email at [email protected] and this will be taken down within 24 hours!
© PDFBrand.com : Official PDF Site : All rights reserved.