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2 months ago
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दस महाविद्याओंमें काली प्रथम हैं। महाभागवतके अनुसार महाकाली ही मुख्य हैं और उन्हींके उग्र और सौम्य दो रूपोंमें अनेक रूप धारण करनेवाली दस महाविद्याएँ हैं । विद्यापति भगवान् शिवकी शक्तियाँ ये महाविद्याएँ अनन्त सिद्धियाँ प्रदान करनेमें समर्थ हैं। दार्शनिक दृष्टिसे भी कालतत्त्वकी प्रधानता सर्वोपरि है। इसलिये महाकाली या काली ही समस्त विद्याओंकी आदि हैं अर्थात् उनकी विद्यामय विभूतियाँ ही महाविद्याएँ हैं। ऐसा लगता है कि महाकालकी प्रियतमा काली ही अपने दक्षिण और वाम रूपोंमें दस महाविद्याओंके नामसे विख्यात हुईं।
बृहन्नीलतन्त्रमें कहा गया है कि रक्त और कृष्णभेदसे काली ही दो रूपोंमें अधिष्ठित हैं। कृष्णाका नाम ‘दक्षिणा’ और रक्तवर्णाका नाम ‘सुन्दरी’ है। कालिकापुराण में कथा आती है कि एक बार हिमालयपर अवस्थित मतंग मुनिके आश्रममें जाकर देवताओंने महामायाकी स्तुति की। स्तुतिसे प्रसन्न होकर मतंग-वनिताके रूपमें भगवतीने देवताओंको दर्शन दिया और पूछा कि तुमलोग किसकी स्तुति कर रहे हो। उसी समय देवीके शरीरसे काले पहाड़के समान वर्णवाली एक और दिव्य नारीका प्राकट्य हुआ। उस महातेजस्विनीने स्वयं ही देवताओंकी ओरसे उत्तर दिया कि ‘ये लोग मेरा ही स्तवन कर रहे हैं।’
वे काजलके समान कृष्णा थीं, इसीलिये उनका नाम ‘काली’ पड़ा। दुर्गासप्तशतीके अनुसार एक बार शुम्भ-निशुम्भके अत्याचारसे व्यथित होकर देवताओंने हिमालयपर जाकर देवीसूक्तसे देवीकी स्तुति की, तब गौरीकी देहसे कौशिकीका प्राकट्य हुआ । कौशिकीके अलग होते ही अम्बा पार्वतीका स्वरूप कृष्ण हो गया, जो ‘काली’ नामसे विख्यात हुईं। कालीको नीलरूपा होनेके कारण तारा भी कहते हैं। नारद-पाञ्चरात्रके अनुसार एक बार कालीके मनमें आया कि वे पुनः गौरी हो जायँ। यह सोचकर वे अन्तर्धान हो गयीं। शिवजीने नारदजीसे उनका पता पूछा। नारदजीने उनसे सुमेरुके उत्तरमें देवीके प्रत्यक्ष उपस्थित होनेकी बात कही। शिवजीकी प्रेरणासे नारदजी वहाँ गये।
उन्होंने देवीसे शिवजीके साथ विवाहका प्रस्ताव रखा। प्रस्ताव सुनकर देवी क्रुद्ध हो गयीं और उनकी देहसे एक अन्य षोडशी विग्रह प्रकट हुआ और उससे छायाविग्रह त्रिपुरभैरवीका प्राकट्य हुआ । कालीकी उपासनामें सम्प्रदायगत भेद है । प्रायः दो रूपोंमें इनकी उपासनाका प्रचलन है। भव-बन्धन-मोचनमें कालीकी उपासना सर्वोत्कृष्ट कही जाती है। शक्ति-साधनाके दो पीठों में कालीकी उपासना श्याम पीठपर करनेयोग्य है। भक्तिमार्गमें तो किसी भी रूपमें उन महामायाकी उपासना फलप्रदा है, पर सिद्धिके लिये उनकी उपासना वीरभावसे की जाती है।
साधनाके द्वारा जब अहंता, ममता और भेद-बुद्धिका नाश होकर साधकमें पूर्ण शिशुत्वका उदय हो जाता है, तब कालीका श्रीविग्रह साधकके समक्ष प्रकट हो जाता है। उस समय भगवती कालीकी छबि अवर्णनीय होती है। कज्जलके पहाड़के समान, दिग्वसना, मुक्तकुन्तला, शवपर आरूढ़, मुण्डमालाधारिणी भगवती कालीका प्रत्यक्ष दर्शन साधकको कृतार्थ कर देता है। तान्त्रिक मार्ग में यद्यपि कालीकी उपासना दीक्षागम्य है, तथापि अनन्य शरणागतिके द्वारा उनकी कृपा किसीको भी प्राप्त हो सकती है। क्षीयमान आपके अधिष्ठान दक्षिणामूर्ति कालभैरव है। उनकी शक्ति ही त्रिपुरभैरवी है।
ये ललिता या महात्रिपुरसुन्दरी की रधवा हिनीहैं। वहयह पुराणे इने गुभ थोगिनियोंकी अधिष्री देवी के रूप में चित्रित किया गया है। पत्यपुराण में उनके त्रिपुरभैरवी, कोलेशभैरवी, रूभैरणी, चैतव्यभैरवी तथा नित्याभैरवी आदि कर्ीका वर्णन प्राप्त होता है। इनियोपर विजय और सर्वत्र उत्कर्षकी प्राधिहेतु त्रिपुरभैरवी की उपासना का वर्णन शास्त्रमें मिलता है। महाविद्याओं में इनका क्या स्थान है। त्रिपुर भैरवी का मुख्य उपयोग घोर कर्मों होता है। इनके प्यानका ओख दुर्गासमशतीके पीसो अध्याय में महिषासुर-वध प्रसंग में हुआ है।
इनका रंग लाल है। ये स्वाल वस्त्र पहनती है गलेमें मुण्डमाला धारण करती हैं और स्तपर रक्त चन्दनका लेप करती हैं। ये अपने हाथों में जपमाला, पुस्तक तथा बर और अभय मुद्रा धारण करती हैं। ये कमलामनपर विराजपान हैं भगवती त्रिपुरभैरवी ही मधुपान करके मरिषका हृदय विदीर्ण किया था। रुचामल एवं भैरवीकृुलसर्वस्वमें इनकी उपासना तथा कवका अमेय मिलता है। संकटोंसे मुक्तिके लिये भी उसकी उपासना करनेका विधान है। घोर क्र्म के लिये कालकी विशेष अवस्था जनित मानों की शान कर देने वाली शक्तिको ही त्रिपुर भैरवी कहा जाता है।
इनका अरुण वर्ण विमर्शका प्रतीक है। इनके गलौ सुशोभित मुण्डमाला हो वर्णमाला है। देवीके रक्तलि पयोधर रजोगुण सम्प्र सृष्टि प्रक्रिया का प्रतीक है। अक्ष जपमाला वर्णसमानायकी प्रतीक है पुस्तक ग्रविद्या है, त्रिनेत्र बेदरदी हैं तथा स्मित हास करुणा है। आगम राधा के अनुसार त्रिपुर भैरवी एकाक्षर कूप (प्रणव) है। इनसे सम्पूर्ण भुवन ज्रिपुरभीरी के अनेक भेद हैं: जैसे सिद्धि भैरवी, भैरवी, भवनेभर, कमलेश्वरीभयो, कामेरीभवी, पदकटाभैरवी, नियाभरणी, कालेशीधरवी, रुद्रभेरी आदि। मिद्धिर्भावी जनरामाय पीठकी देवी हैं निनयाभेव पमाराय पीटको देवी हैं. इनके उपायक भगवान शिव ।का भैरवी दक्षिणाय पीठ को नेवी इनके उपासक भगान् विष्णु है।
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